NCERT Class 12 History इतिहास (हरियाणा बोर्ड) Exercise Solutions
पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (Textual Questions)
प्रश्न 1. कृषि इतिहास लिखने के लिए आइन को स्रोत के रूप में इस्तेमाल करने में कौन-सी समस्याएँ हैं? इतिहासकार इन समस्याओं से कैसे निपटते हैं ?
उत्तर– समस्याएँ:
कृषि इतिहास लिखने के लिए ‘आइन‘ को स्रोत के रूप में प्रयोग करने में निम्नलिखित समस्याएँ हैं-
1.आँकड़ों के जोड़ में कई गलतियाँ पाई गई हैं।
2. इसके संख्यात्मक आँकड़ों में विषमताएँ हैं।
- सभी सूबों से आँकड़े समान रूप से एकत्रित नहीं किए गए। जहाँ कई सूबों के लिए ज़मींदारों की जाति के अनुसार विस्तृत सूचनाएँ संकलित की गईं, वहीं बंगाल और उड़ीसा के लिए ऐसी सूचनाएँ नहीं मिलतीं। इसी प्रकार जहाँ सूबों के लिए राजकोषीय आँकड़े बड़े विस्तार से दिए गए हैं, वहीं उन्हीं प्रदेशों से मूल्यों और मज़दूरी जैसे महत्त्वपूर्ण आँकड़े सही ढंग से दर्ज़ नहीं किए गए हैं। मूल्यों और मज़दूरी की दरों की जो विस्तृत सूची आइन में दी भी गई है, वह साम्राज्य की राजधानी आगरा या उसके आस- पास के प्रदेशों से ली गई हैं। स्पष्ट है कि देश के अन्य भागों के लिए ये आँकड़े प्रासंगिक नहीं हैं।
समस्या से निपटना
- इन समस्याओं से निपटने के लिए इतिहासकार आइन के साथ-साथ उन स्रोतों का भी प्रयोग कर सकते हैं जो मुग़लों की राजधानी से दूर के प्रदेशों में लिखे गए थे। इनमें 17वीं तथा 18वीं शताब्दियों के गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान से मिले वे दस्तावेज़ शामिल हैं जो सरकार की आय की विस्तृत जानकारी देते हैं।
- इसके अतिरिक्त ईस्ट इंडिया कंपनी के भी बहुत-से दस्तावेज़ हैं जो पूर्वी भारत में कृषि-संबंधों पर प्रकाश डालते हैं। इन सभी स्रोतों में किसानों, ज़मींदारों और राज्य के बीच समय-समय पर होने वाले संघर्षों के व्यौरे दर्ज हैं। ये स्रोत यह समझने में हमारी सहायता करते हैं कि किसान राज्य को किस दृष्टिकोण से देखते थे और राज्य से उन्हें कैसे न्याय की आशा थी।
प्रश्न 2. सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में कृषि उत्पादन को किस हद तक महज़ गुज़ारे के लिए खेती कह सकते हैं? अपने उत्तर के कारण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर : 16वीं तथा 17वीं शताब्दी में खेती का मुख्य उद्देश्य लोगों का पेट भरना था। इसलिए मुख्यतः चावल, गेहूँ, बाजरा आदि अनाजों की खेती की जाती थी। परंतु यह खेती केवल गुज़ारे के लिए नहीं थी। तब तक खेती का स्वरूप काफ़ी बदल चुका था। इसके पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं:-
- 1.खेती मौसम के दो मुख्य चक्रों के दौरान की जाती थी । एक खरीफ़ (पतझड़ में) और दूसरी रबी (वसंत में)। सूखे इलाकों और बंजर ज़मीन को छोड़कर अधिकतर स्थानों पर साल में कम-से-कम दो फ़सलें उगाई जाती थीं। जहाँ वर्षा या सिंचाई के अन्य साधन उपलब्ध थे, वहाँ साल में तीन फ़सलें भी उगाई जाती थीं।
- 2. स्रोतों में प्रायः जिन्स-ए-कामिल जैसे शब्द मिलते हैं जिसका अर्थ है- सर्वोत्तम फ़सलें । मुग़ल राज्य भी किसानों को ऐसी फ़सलें उगाने के लिए प्रोत्साहन देता था क्योंकि इनसे राज्य को अधिक कर मिलता था। इन फ़सलों में कपास और गन्ने की फ़सलें मुख्य थीं। कपास मध्य भारत तथा दक्कनी पठार में फैले जमीन के बड़े-बड़े टुकड़ों पर उगाई जाती थी, जबकि बंगाल गन्ने की खेती के लिए विख्यात था जहाँ तिलहन (जैसे सरसों) और दलहन भी नकदी फ़सलों में शामिल थीं।
प्रश्न 3. कृषि समाज में महिलाओं की भूमिका का विवरण दीजिए।
उत्तर: उत्पादन की प्रक्रिया में पुरुष और महिलाएँ विशेष प्रकार की भूमिकाएँ निभाते हैं।
- मुग़लकाल में भी महिलाएँ और.पुरुष कंधे से कंधा मिलाकर खेतों में काम करते थे। पुरुष खेत जोतते थे तथा हल चलाते थे, जबकि महिलाएँ बुआई, निराई और कटाई के साथ-साथ पकी हुई फ़सल से दाना निकालने का काम करती थीं।
- छोटी-छोटी ग्रामीण इकाइयों और किसान की व्यक्तिगत खेती का विकास होने पर घर-परिवार के संसाधन और श्रम उत्पादन का आधार बन गए। ऐसे में लिंग बोध के आधार पर किया जाने वाला अंतर (घर के लिए महिलाएँ और बाहर के लिए पुरुष) संभव नहीं था।
फिर भी महिलाओं की जैव वैज्ञानिक क्रियाओं को लेकर लोगों के मन में पूर्वाग्रह बने रहे।
- उदाहरण के लिए पश्चिमी भारत में मासिक-धर्म वाली महिलाओं को हल या कुम्हार का चाक छूने की अनुमति नहीं थी।
- इसी प्रकार बंगाल में अपने मासिक धर्म के समय महिलाएँ पान के बागान में प्रवेश नहीं कर सकती थीं।
- सूत कातने, बर्तन बनाने के लिए मिट्टी को साफ़ करने और गूँथने तथा कपड़ों पर कढ़ाई जैसे दस्तकारी के काम महिलाओं के श्रम पर निर्भर थे।
- किसी वस्तु का जितना अधिक वाणिज्यीकरण होता था, उसके उत्पादन के लिए महिलाओं के श्रम की माँग उतनी ही अधिक होती थी।
प्रश्न 4. विचाराधीन काल (मुग़लकाल) में मौद्रिक कारोबार की अहमियत (महत्त्व) की विवेचना उदाहरण देकर कीजिए।
उत्तर:
- 1. मुग़लकाल में भारत के समुद्र पार व्यापार में अत्यधिक वृद्धि हुई और कई नई वस्तुओं का व्यापार आरंभ हो गया। लगातार बढ़ते व्यापार के कारण भारत से निर्यात होने वाली वस्तुओं के भुगतान के रूप में एशिया में भारी मात्रा में चाँदी आई। इस चाँदी का एक बड़ा भाग भारत में पहुँचा। यह भारत के लिए अच्छी बात थी क्योंकि यहाँ चाँदी के प्राकृतिक भंडार नहीं थे। फलस्वरूप 16वीं से 18वीं शताब्दी के बीच भारत में धातु मुद्रा विशेषकर चाँदी के रुपयों की उपलब्धि में स्थिरता बनी रही। अतः अर्थव्यवस्था में मुद्रा संचार तथा सिक्कों की ढलाई में अभूतपूर्व विस्तार हुआ। इसके अतिरिक्त मुग़ल साम्राज्य को नकदी कर उगाहने में भी आसानी हुई। इटली के एक यात्री जोवान्नी कारेरी जो लगभग 1690 ई० में भारत से गुजरा था, ने इस बात का बहुत ही सजीव चित्रण किया कि किस प्रकार चाँदी संसार भर से भारत में पहुँचती थी। उसके वृत्तांत से हमें यह भी पता चलता है कि 17वीं शताब्दी के भारत में भारी मात्रा में नकदी और वस्तुओं का आदान-प्रदान हो रहा था।
- 2. गाँवों में भी आपसी लेन-देन नकदी में होने लगा। गाँवों के शहरी बाजारों से जुड़ जाने से मौद्रिक कारोबार में और भी वृद्धि हुई। इस प्रकार गाँव मुद्रा बाजार का अंग बन गए।
- 3. मौद्रिक कारोबार के कारण श्रमिकों को उनका दैनिक भुगतान करना सरल हो गया।
प्रश्न 5. उन सबूतों की जाँच कीजिए जो ये सुझाते हैं कि मुग़ल राजकोषीय व्यवस्था के लिए भू-राजस्व बहुत महत्त्वपूर्ण था ।
उत्तर :
- भू-राजस्व मुग़ल साम्राज्य की आय का प्रमुख स्रोत था। इसलिए कृषि उत्पादन पर नियंत्रण रखने के लिए और तेज़ी से फैलते साम्राज्य में राजस्व के आकलन तथा वसूली के लिए एक प्रशासनिक तंत्र का होना आवश्यक था। अतः सरकार ने ऐसी हर संभव व्यवस्था की जिससे राज्य में सारी कृषि योग्य भूमि की जुताई सुनिश्चित की जा सके। इस तंत्र में ‘दीवान‘ की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण थी क्योंकि पूरे राज्य की वित्तीय व्यवस्था की देख-रेख की ज़िम्मेवारी उसी के विभाग पर थी। इस प्रकार हिसाब-किताब रखने वाले और राजस्व अधिकारी कृषि संबंधों को नया रूप देने में एक निर्णायक शक्ति के रूप में उभरे।
- कर निर्धारण और वसूली कर:
- निर्धारित करने से पहले मुग़ल राज्य ने ज़मीन और उस पर होने वाले उत्पादन के बारे में विशेष प्रकार की सूचनाएँ इकट्ठी कीं। भू-राजस्व व्यवस्था के दो चरण थे- कर निर्धारण तथा वास्तविक वसूली। जमा निर्धारित राशि थी और हासिल वास्तविक वसूली गई राशि अकबर ने अमील-गुज़ार या राजस्व वसूली करने वाले अधिकारियों को यह आदेश दिया था कि वे उसे नकद भुगतान प्राप्त करने के साथ-साथ फ़सल के रूप में भुगतान का विकल्प भी खुला रखें। राजस्व निर्धारित करते समय राज्य अपना हिस्सा अधिक-से-अधिक रखने की कोशिश करता था । परंतु स्थानीय स्थिति को देखते हुए कभी-कभी इतनी वसूली कर पाना संभव नहीं हो पाता था।
- भूमि की माप
- प्रत्येक प्रांत में जुती हुई ज़मीन और जोतने योग्य ज़मीन दोनों की माप करवाई गई। अकबर के शासनकाल में अबुल फ़ज़ल ने आइन-ए-अकबरी में ऐसी ज़मीनों के सभी आँकड़ों को संकलित किया। उसके बाद के बादशाहों के शासनकाल में भी ज़मीन की माप के प्रयास जारी रहे।
प्रश्न 6. आपके मुताबिक कृषि समाज में सामाजिक व आर्थिक संबंधों को प्रभावित करने में जाति किस हद तक एक कारक थी ?
उत्तर : जाति तथा जाति जैसे अन्य भेदभावों के कारण खेतिहर किसान कई तरह के समूहों में बँटे थे
- (1) खेतों की जुताई करने वालों में एक बड़ी संख्या उन लोगों की थी जो निकृष्ट समझे जाने वाले कामों में लगे थे, या फिर खेतों में मजदूरी करते थे। इस तरह वे गरीबी में जीवन बिताने को विवश थे। गाँव की आबादी का बहुत बड़ा भाग ऐसे ही लोगों का था। इनके पास सबसे कम संसाधन थे और ये जाति व्यवस्था के बंधनों में बँधे थे। इनकी दशा बहुत ही दयनीय थी
- (2) ऐसे भेदभाव अन्य संप्रदायों में भी फैलने लगे थे। मुसलमान समुदायों में हलालख़ोरान जैसे निष्कृष्ट कामों से जुड़े समूह गाँव की सीमा से बाहर ही रह सकते थे। इसी प्रकार बिहार में मल्लाहजादाओं (शाब्दिक अर्थ, नाविकों के पुत्र) का जीवन भी दासों जैसा था।
- (3) समाज के निचले वर्गों में जाति, ग़रीबी तथा सामाजिक स्थिति के बीच सीधा संबंध था। बीच के समूहों में ऐसा नहीं था। 17वीं शताब्दी में मारवाड़ में लिखी गई एक पुस्तक में राजपूतों की चर्चा किसानों के रूप में की गई है। इस पुस्तक के अनुसार जाट भी किसान थे। परंतु जाति-व्यवस्था में उनका स्थान राजपूतों के समान नहीं था।
- (4) 17वीं शताब्दी में राजपूत होने का दावा वृंदावन (उत्तर प्रदेश) के प्रदेश में गौरव समुदाय ने भी किया, भले ही वे ज़मीन की जुताई के काम में लगे थे। पशुपालन और बाग़बानी में बढ़ते मुनाफ़े के कारण अहीर, गुज्जर और माली जैसी जातियाँ सामाजिक सीढ़ी में ऊपर उठीं। पूर्वी प्रदेशों में पशुपालक तथा मछुआरी जातियाँ भी किसानों जैसी सामाजिक स्थिति पाने लगीं।
प्रश्न 7. सोलहवीं और सत्रहवीं सदी में जंगलवासियों की ज़िंदगी किस तरह बदल गईं?
उत्तर:
इसमें कोई संदेह नहीं मुग़लकालीन ग्रामीण भारत में रहने वाले लोग केवल खेती पर ही निर्भर नहीं थे। उनका जीवन जंगलों से भी जुड़ा था।
जंगलवासी और उनका जीवन :
- वनवासी वनों अथवा जंगलों में रहने वाले लोग थे। समसामयिक रचनाएँ जंगल में रहने वालों के लिए ‘जंगली‘ शब्द का प्रयोग करती हैं। परंतु जंगली होने का अर्थ यह नहीं था कि वे असभ्य थे। उन दिनों इस शब्द का प्रयोग ऐसे लोगों के लिए होता था जिनका निर्वाह जंगल के उत्पादों, शिकार और स्थानांतरीय खेती से होता था। ये काम मौसम के अनुसार एक निश्चित क्रम में होते थे। एक जगह से दूसरी जगह घूमते रहना जंगलों में रहने वाले कबीलों की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी।
जंगलवासियों के जीवन में बदलाव :
जंगलवासियों के जीवन में बदलाव बाहरी शक्तियों के जंगल में हस्तक्षेप से हुआ।
- बाहरी शक्तियाँ जंगल में कई तरह से घुसती थीं; उदाहरण के लिए राज्य को सेना के लिए हाथियों की ज़रूरत होती थी। इसलिए, जंगलवासियों से ली जाने वाली भेंट में प्राय: हाथी भी शामिल होते थे। मुग़ल राजनीतिक विचारधारा में शिकार अभियान राज्य के लिए ग़रीबों और अमीरों सहित सभी को न्याय प्रदान करने का एक माध्यम था । दरबारी इतिहासकारों के अनुसार अभियान के नाम पर बादशाह अपने विशाल साम्राज्य के कोने-कोने का दौरा करता था। इस प्रकार वह अलग- अलग प्रदेशों के लोगों की समस्याओं और शिकायतों पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान दे पाता था। दरबारी कलाकारों के चित्रों में शिकार के बहुत से दृश्य दिखाए गए हैं। इन चित्रों में चित्रकार प्रायः छोटा-सा एक ऐसा दृश्य डाल देते थे जो शासन के सद्भावनापूर्ण होने का संकेत देता था।
- वाणिज्यिक खेती का प्रसार एक ऐसा बाहरी कारक था जो जंगलवासियों के जीवन को भी प्रभावित करता था। शहद, मुधमोम और लाख आदि जंगली उत्पादों की बहुत माँग थी। लाख जैसी कुछ वस्तुएँ तो 17वीं शताब्दी में भारत से समुद्र पार होने वाले निर्यात की मुख्य वस्तुएँ थीं। हाथी भी पकड़े और बेचे जाते थे। व्यापार में वस्तुओं की अदला-बदली भी होती थी। पंजाब के लोहानी कबीले जैसे कुछ कबीले भारत और अफ़गानिस्तान के बीच होने वाले ज़मीनी व्यापार में लगे थे। वे पंजाब के गाँवों और शहरों के बीच होने वाले व्यापार में भी हिस्सा लेते थे।
- सामाजिक कारणों से भी जंगलवासियों के जीवन में परिवर्तन आए। ग्रामीण समुदाय के “बड़े आदमियों” की तरह जंगली कबीलों के भी सरदार होते थे। कई कबीलों के सरदार धीरे-धीरे जमींदार बन गए। कुछ तो राजा भी बन गए। ऐसे में उन्हें सेना तैयार करने की ज़रूरत पड़ी। अत: उन्होंने अपने ही परिवार के लोगों को सेना में भर्ती किया या फिर अपने ही भाई-बंधुओं से सैन्य सेवा की माँग की। सिंध प्रदेश की कबीलाई सेनाओं में 6000 घुड़सवार और 7000 पैदल सिपाही होते थे। असम में, अहोम राजाओं के अपने पायक होते थे। ये वे लोग थे जिनसे ज़मीन के बदले सैनिक सेवा ली जाती थी। अहोम राजाओं ने जंगली हाथी पकड़ने पर अपने एकाधिकार की घोषणा कर रखी थी।
- जंगली इलाकों में नए सांस्कृतिक प्रभावों के विस्तार की भी शुरुआत हुई। कुछ इतिहासकारों ने यह भी सुझाया है कि नए बसे इलाकों के खेतिहर समुदायों ने जिस प्रकार धीरे-धीरे इस्लाम को अपनाया, उसमें सूफ़ी संतों (पीर) ने एक बड़ी भूमिका निभाई थी।
प्रश्न 8. मुग़ल भारत में ज़मींदारों की भूमिका की जाँच कीजिए।
उत्तर
भूमिका
मुग़लकाल में ज़मींदार कृषि संबंधों में केंद्र बिंदु थे। निम्नलिखित बिंदु इन संबंधों के मुख्य आधार थे-
- (1) मुग़ल भारत में ज़मींदारों की कमाई का स्रोत तो कृषि थी, परंतु वे कृषि उत्पादन में प्रत्यक्ष भागीदारी नहीं करते थे। वे अपनी ज़मीन के मालिक होते थे।
- (2) ग्रामीण समाज में ऊँची स्थिति के कारण उन्हें कुछ विशेष सामाजिक और आर्थिक सुविधाएँ मिली हुई थीं। समाज में ज़मींदारों की उच्च स्थिति के दो कारण थे। उनकी जाति तथा उनके द्वारा राज्य को दी जाने वाली.विशेष सेवाएँ ।
- (3) ज़मींदारों की समृद्धि का आधार उनकी विस्तृत व्यक्तिगत ज़मीन थी। इसे मिल्कियत अर्थात् संपत्ति कहते थे । मिल्कियत ज़मीन पर ज़मींदार के निजी प्रयोग के लिए खेती होती थी। इन ज़मीनों पर प्रायः दिहाड़ी के मज़दूर अथवा पराधीन मज़दूर काम करते थे।
- (4) ज़मींदार अपनी ज़मीनों को बेच सकते थे, किसी और के नाम कर सकते थे या उन्हें गिरवी रख सकते थे।
- (5) ज़मींदारों की शक्ति का एक अन्य स्रोत यह था कि वे राज्य की ओर से कर वसूल कर सकते थे। इसके बदले उन्हें वित्तीय मुआवजा मिलता था।
- (6) सैनिक संसाधन ज़मींदारों की शक्ति का एक अन्य साधन था। अधिकांश जमींदारों के पास अपने किले भी थे और अपनी सैनिक टुकड़ियाँ भी थीं जिसमें घुड़सवारों, तोपखाने और पैदल सिपाहियों के जत्थे शामिल थे।
- (7) यदि हम मुग़लकालीन गाँवों में सामाजिक संबंधों को एक पिरामिड के रूप में देखें तो ज़मींदार इसके संकरे शीर्ष का भाग थे अर्थात् उनका स्थान सबसे ऊँचा था।
- (8) जमींदारों ने कृषि योग्य जमीनों को बसाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने खेतिहरों को खेती के उपकरण तथा धन उधार देकर उन्हें वहाँ बसने में सहायता की। ज़मींदारी की खरीद-बेच से गाँवों के मौद्रीकरण की प्रक्रिया में तेजी आई। इसके अतिरिक्त ज़मींदार अपनी जमीनों की फ़सल भी बेचते थे। ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि ज़मींदार प्राय: बाज़ार (हाट) लगाते थे जहाँ किसान भी अपनी फ़सलें बेचने आते थे।
शोषणकर्ता के रूप में जमींदार:
- इसमें कोई संदेह नहीं कि ज़मींदार एक शोषक वर्ग था। परंतु किसानों से उनके रिश्ते पारस्परिकता, पैतृकवाद तथा संरक्षण पर आधारित थे। इसलिए राज्य के विरुद्ध विद्रोह करने पर उन्हें किसानों का समर्थन प्राप्त होता था।
उत्पत्ति-
- यदि हम मुग़लकालीन गाँवों में सामाजिक संबंधों को एक पिरामिड के रूप में देखें तो ज़मींदार इसके संकरे शीर्ष का भाग थे अर्थात् उनका स्थान सबसे ऊँचा था। अबुल फ़ज़ल लिखता है कि उच्च जाति के ब्राह्मण-राजपूत गठबंधन ने ग्रामीण समाज पर पहले ही अपना कड़ा नियंत्रण बना रखा था। इसमें तथाकित मध्यम जातियों को भी पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त था। इसी तरह कई मुसलमान ज़मींदारों को भी।
- ज़मींदारी को पुष्ट करने की प्रक्रिया धीमी थी। यह काम कई प्रकार से किया जा सकता था। (i) नई ज़मीनों को बसाकर (ii) अधिकारों के हस्तांतरण द्वारा (iii) राज्य के आदेश से भूमि ख़रीदकर। यही वे प्रक्रियाएँ थीं जिनके द्वारा अपेक्षाकृत कमज़ोर वर्गों के लोग भी ज़मींदारों के दर्जे तक पहुँच सकते थे। क्योंकि इस काल में ज़मींदारों का क्रय-विक्रय व्यापक स्तर पर होता था।
- परिवार या वंश पर आधारित ज़मींदारियों को सुदृढ़ बनाने में कई कारकों का हाथ था। उदाहरण के लिए राजपूतों और जाटों ने ऐसी ही रणनीति अपनाकर उत्तर भारत में ज़मीन की बड़ी-बड़ी पट्टियों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया । इसी प्रकार मध्य और दक्षिण-पश्चिम बंगाल में किसान-पशुचारकों (जैसे सदगोप) ने भी जमींदारियाँ स्थापित कर लीं।
प्रश्न 9. पंचायत और गाँव का मुखिया किस तरह से ग्रामीण समाज का नियमन करते थे? विवेचना कीजिए।
उत्तर
पंचायतों का गठन
- मुग़लकालीन गाँव की पंचायत गाँव के बुजुर्गों की सभा होती थी। प्राय: वे गाँव के महत्त्वपूर्ण लोग हुआ करते थे जिनके पास अपनी संपत्ति होती थी। जिन गाँवों में विभिन्न जातियों के लोग रहते थे, वहाँ पंचायत में भी विविधता पाई जाती थी। यह एक ऐसा अल्पतंत्र था जिसमें गाँव के अलग-अलग संप्रदायों और जातियों को प्रतिनिधित्व प्राप्त होता था। पंचायत का निर्णय गाँव में सबको मानना पड़ता था ।
पंचायत का मुखिया
- पंचायत के मुखिया को मुक़द्दम या मंडल कहते थे। कुछ स्रोतों से प्रतीत होता है कि मुखिया का चुनाव गाँव के बुजुर्गों की आम सहमति से होता था। चुनाव के बाद उन्हें इसकी मंजूरी ज़मींदार से लेनी पड़ती थी। मुखिया अपने पद पर तभी तक बना रहता था जब तक गाँव के बुजुर्गों को उस पर भरोसा होता था। भरोसा न रहने पर बुजुर्ग उसे हटा सकते थे। गाँव के आय-व्यय का हिसाब-किताब अपनी निगरानी में तैयार करवाना मुखिया का मुख्य काम था। इस काम में पंचायत का पटवारी उसकी सहायता करता था।
पंचायत का आम खज़ाना
- पंचायत का खर्चा गाँव के एक आम खज़ाने से चलता था जिसमें हर व्यक्ति अपना योगदान देता था।
- समय-समय पर गाँव का दौरा करने वाले अधिकारियों की आवभगत का खर्चा भी इसी खज़ाने से किया जाता था।
- इस कोष का प्रयोग बाढ़ जैसी प्राकृतिक विपदाओं से निपटाने के लिए भी होता था।
- इसी कोष से ऐसे सामुदायिक कार्यों के लिए भी ख़र्चा होता था जो किसान स्वयं नहीं कर सकते थे, जैसे कि मिट्टी के छोटे-मोटे बाँध बनाना या नहर खोदना ।
ग्रामीण समाज का नियमन (अधिकार एवं कार्य)
- पंचायत का एक बड़ा काम यह देखना था कि गाँव में रहने वाले सभी समुदायों के लोग अपनी जाति की सीमाओं के अंदर रहें। पूर्वी भारत में सभी शादियाँ मंडल की उपस्थिति में होती थीं। जाति की अवहेलना को रोकने के लिए लोगों के आचरण पर नज़र रखना गाँव के मुखिया की एक महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी थी।
पंचायतों को जुर्माना लगाने तथा किसी दोषी को समुदाय से निष्कासित करने जैसे अधिकार प्राप्त थे। समुदाय से बाहर निकालना एक कड़ा कदम था जो एक सीमित समय के लिए लागू किया जाता था। इसके अंतर्गत दंडित व्यक्ति को दिए गए समय के लिए गाँव छोड़ना पड़ता था। इस दौरान वह अपनी जाति तथा व्यवसाय से हाथ धो बैठता था। ऐसी नीतियों का उद्देश्य जातिगत रिवाजों की अवहेलना को रोकना था
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