HBSE Class 12 History इतिहास (हरियाणा बोर्ड ) अध्याय 3. बंधुत्व, जाति तथा वर्ग
1. महाभारत का समालोचनात्मक संस्करण
1919 में प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान वी.एस. सुकथांकर के नेतृत्व में एक अत्यंत महत्त्वाकांक्षी परियोजना की
शुरुआत हुई। अनेक विद्वानों ने मिलकर महाभारत का समालोचनात्मक संस्करण तैयार करने का ज़िम्मा
उठाया। इससे जुडे क्या-क्या कार्य थे? आरंभ में देश के विभिन्न भागों से विभिन्न लिपियों में लिखी गई
महाभारत की संस्कृत पांडुलिपियों को एकत्रित किया गया।
2. बंधुता एवं विवाह
अनेक नियम और व्यवहार की विभिन्नता
2.1 परिवारों के बारे में जानकारी
संस्कृत ग्रंथों में 'कुल' शब्द का प्रयोग परिवार के लिए ओर 'जाति' का बांधवों के बडे समूह के लिए होता हे।
2.2 पितृवंशिक व्यवस्था के आदर्श
पितृवशिकता का अर्थ हे वह वंश परंपरा जो पिता के पुत्र फिर पोत्र, प्रपोत्र आदि से चलती हे।मातृवशिकता शब्द का इस्तेमाल हम तब करते हें जहाँ वंश परंपरा माँ से जुड़ी होती हे।
2.3 विवाह के नियम
विवाह के प्रकार
अंतर्विवाह में वैवाहिक संबंध समूह के मध्य ही होते हैं। यह समूह एक गोत्र कुल अथवा
बहिर्विवाह गोत्र से बाहर विवाह करने
बहुपत्नी प्रथा एक पुरुष की अनेक पत्नियाँ होने की सामाजिक परिपाटी हे।
बहुपति प्रथा एक स्त्री के अनेक पति होने की पद्धति हे।
लगभग 500 ई.पू. से इन मानदंडों का संकलन धर्मसूत्र व धर्मशास्त्र नामक संस्कृत ग्रंथों में किया गया। इसमें
सबसे महत्वपूर्ण मनुस्मृति थी जिसका संकलन लगभग 200 ई.पू. से 200 ईसवी के बीच हुआ।
यहाँ मनुस्म॒ति से पहली, चोथी, पाँचवीं और छठी विवाह पद्धति का उद्धरण दिया जा रहा हे :
पहली : कन्या का दान, बहुमूल्य वस्त्रों और अलंकारों से विभूषित कर उसे वेदज्ञ वर को दान
दिया जाए जिसे पिता ने स्वयं आमंत्रित किया हो।
चौथी : पिता वर-वधू युगल को यह कहकर संबोधित करता है कि :“तुम साथ मिलकर अपने
दायित्वों का पालन करो।” तत्पश्चात वह वर का सम्मान कर उसे कन्या का दान करता हे।
पाँचवीं : वर को वधू की प्राप्ति तब होती है जब वह अपनी क्षमता व इच्छानुसार उसके बांधवों
को प्रदान करता है। ,
छठी : स्त्री और पुरुष के बीच अपनी इच्छा से संयोग... जिसकी उत्पत्ति काम से हे
2.4 स्त्री का गोत्र
एक ब्राह्मणीय पद्धति जो लगभग 1000 ई.पू. के बाद से प्रचलन में आई, वह लोगों
(खासतोर से ब्राह्मणों) को गोत्रों में वर्गीकृत करने की थी। प्रत्येक गोत्र एक वेदिक ऋषि के
नाम पर होता था। उस गोत्र के सदस्य ऋषि के वंशज माने जाते थे। गोत्रों के दो नियम
महत्वपूर्ण थे : विवाह के पश्चात स्त्रियों को पिता के स्थान पर पति के गोत्र का माना जाता था
तथा एक ही गोत्र के सदस्य आपस में विवाह संबंध नहीं रख सकते थे
2.5 क्या माताएँ महत्वपूर्ण थीं?
- सातवाहन राजाओं को उनके मातृनाम (माता के नाम से उद्भूत) से चिन्हित किया जाता था। इससे यह प्रतीत होता है कि माताएँ महत्वपूर्ण थीं किंतु सिंहासन का उत्तराधिकार पितृवंशिक होता था।
3. सामाजिक विषमताएँ
वर्ण व्यवस्था के दायरे में और उससे परे
- धर्मसूत्रों ओर धर्मशास्त्रों में एक आदर्श व्यवस्था का उल्लेख किया गया था। ब्राह्मणों का यह मानना था कि यह व्यवस्था जिसमें स्वयं उन्हें पहला दर्ज़ा प्राप्त है, एक दैवीय व्यवस्था है। शुद्रों और “अस्पृश्यों' को सबसे निचले स्तर पर रखा जाता था।
3.1 उचित' जीविका
धर्मसूत्रों ओर धर्मशास्त्रों में चारों वर्गों के लिए आदर्श “जीविका' से जुडे कई नियम मिलते हैं।
- ब्राह्मणों का कार्य अध्ययन, वेदों की शिक्षा, यज्ञ करना और करवाना था तथा उनका काम दान देना और लेना।
- क्षत्रियों का कर्म युद्ध करना, लोगों को सुरक्षा प्रदान करना, न्याय करना,
- वैश्यों वेद पढ़ना, यज्ञ करवाना ओर दान-दक्षिणा देना था। कृषि, गौ-पालन ओर व्यापार का कर्म भी अपेक्षित था।
- शूद्रों के लिए मात्र एक ही जीविका थी-तीनों ‘उच्च वर्णों'की सेवा करना।
ऋग्वेद के पुरुषसूक्त मंत्र को उद्धृत करते थे जो आदि मानव पुरुष की बलि का चित्रण करता है। जगत के सभी
तत्व जिनमें चारों वर्ण शामिल हें इसी पुरुष के शरीर से उपजे थे।
ब्राह्मण- मुँह
क्षत्रिय -भुजाओं
वेश्य -जंघा
शूद्र - पेर
महाभारत के आदिपर्वन् से एक कहानी उद्धृत है :एक बार ब्राह्मण द्रोण के पास, जो कुरु वंश के राजकुमारों को
धनुर्विद्या की शिक्षा देते थे, एकलव्य नामक वनवासी निषाद (शिकारी समुदाय) आया। द्रोण ने जो धर्म समझते थे,
उसे शिष्य के रूप में स्वीकार करने से मना कर दिया।
3.2 अक्षत्रिय राजा
शास्त्रों के अनुसार केवल क्षत्रिय राजा हो सकते थे। कितु अनेक महत्वपूर्ण राजवंशों की उत्पत्ति अन्य वर्णों से
भी हुई थी।
मौर्य वंश :क्षत्रिय-बौद्ध ग्रंथों
मौर्य वंश :“निम्न' कुल-ब्राह्मणीय शास्त्र
शुंग और कण्व जो मौरयों के उत्तराधिकारी थे, ब्राह्मण थे। शक जो मध्य एशिया से
भारत आए, ब्राह्मण मलेच्छ, बर्बर अथवा अन्यदेशीय मानते थे।
प्रसिद्ध शक राजा रुद्रदामन -दूसरी शताब्दी ईसवी में सुदर्शन सरोवर का जीर्णोद्धार करवाया
सातवाहन कुल के सबसे प्रसिद्ध शासक गोतमी-पुत्त सिरी-सातकनि ने
स्वयं को अनूठा ब्राह्मणऔर साथ ही क्षत्रियों के दर्प का हनन करने
वाला बताया था।
3.3 जाति और सामाजिक गतिशीलता
ब्राह्मणीय सिद्धांत में वर्ण की तरह जाति भी जन्म पर आधारित थी। किंतु वर्ण जहाँ मात्र चार थे
वहीं जातियों की कोई निश्चित संख्या नहीं थी।
मंदसोर (मध्य प्रदेश) से मिला अभिलेख (लगभग पाँचवीं शताब्दी ईसवी )। इसमें रेशम के बुनकरों की एक श्रेणी का वर्णन
मिलता है जो मूलतः लाट (गुजरात) प्रदेश के निवासी थे ओर वहाँ से मंदसोर चले गए थे, जिसे उस समय दशपुर के नाम
से जाना जाता था।
वणिकों की स्थिति
संस्कृत के ग्रंथ और अभिलेखों में व्यापारियों के लिए वणिक शब्द प्रयुक्त किया जाता है। हालाँकि शास्त्रों में
व्यापार को वैश्यों की जीविका बताया जाता हे अन्य स्रोतों में अधिक जटिल परिस्थिति देखने को मिलती हे।
जैसे शूद्रक के नाटक मृच्छकाटिकम् (लगभग चौथी शताब्दी ईसवी) में नायक चारुदत्त को ब्राह्मण- वणिक बताया
गया है। पाँचवीं शताब्दी ईसवी के एक अभिलेख में दो भाइयों को क्षत्रिय-वणिक कहा गया है, जिन्होंने एक मंदिर
के निर्माण के लिए धन दिया।
3.4 चार वर्णों के परे : एकीकरण
संस्कृत साहित्य में जब ऐसे समुदायों का उल्लेख उन्हें कई बार विचित्र, असभ्य और पशुवत चित्रित किया
जाता है । ऐसे कुछ उदाहरण बन प्रांतर में बसने वाले लोगों : लिए शिकार और कंद-मूल संग्रह करना
जीवन-निर्वाह साधन था। निषाद वर्ग जिससे एकलव्य जुड़ा माना जाता उदाहरण हे।
महाभारत के आदिपर्वन् से उद्धृत कहानी का हे :बाघ सदृश पति
3.5 चार वर्णों के परे : अधीनता और संघर्ष
ब्राह्मणों के द्वारा बनाई गई वर्ण व्यवस्था से कुछ लोगो को बाहर रखा गया। इन्होंने कुछ वर्गों को ”
अस्पृश्य घोषित किया ब्राह्मण अनुष्ठान को पवित्र काम मानते थे ।
ब्राह्मण अस्पृश्यो से भोजन स्वीकार नही करते थे।
कुछ काम दूषित मने जाते थे जैसे :- शव का अंतिम संस्कार करना और मृत जानवरो को छूना।
इन कामो को करने वाले को चांडाल कहा जाता था।
चाण्डालों को छूना और देखना भी पाप समझते थे।
मनुस्मृति के अनुसार समाज में चांडालो की स्थिति :-
समाज में चांडालो को सबसे नीच समझा जाता था और इनका मुख्य काम शवों को और मृत पशुओं को दफनाने
का
था ।
● गाँव से बाहर रहना ।
● फेके बर्तन का प्रयोग करना ।
● मृत लोगो के कपडे पहनना ।
● मृत लोगो के आभूषण पहनना ।
● रात में गाँव नगरो में चलने की मनाही | –
● अस्पृश्यो को सड़क पर चलते हुए करताल बजाना पड़ता था। ताकि दूसरे उन्हें देखने से बच जाए।
संसाधन एव प्रतिष्ठा :-
आर्थिक संबंधों के अध्यन से पता लगा की दस, भूमिहीन खेतिहर मजदूर, मछुआरों, पशुपालक, कृषक, मुखिया, शिकारी,
शिल्पकार, वणिक, राजा आदि सभी का सामाजिक स्थान इस बात पर निर्भर करता था कि आर्थिक संसाधनों पर उनका
नियंत्रण कैसा है।
सम्पत्ति पर स्त्री, पुरूष के भिन्न अधिकार :-
● मनुस्मृति के अनुसार :-
● पिता की मृत्यु के बाद उसकी सम्पत्ति पुत्रों में बाँटी जाती थी।
● ज्येष्ठ पुत्र को विशेष हिस्सा दिया जाता था ।
● विवाह के दौरान मिले उपहार पर स्त्री का अधिकार था।
● यह संपति उसकी संतान को विरासत में मिलती थी।
● पति का उस पर अधिकार नहीं था ।
● स्त्री पति की आज्ञा के बिना गुप्त धन संचय नही कर सकती थी
● उच्च वर्ग की औरत संसाधनों पर अधिकार रखती थी।
पुरुषो के लिए मनुस्मृति कहती है धन अर्जित करने के 7 तरीके थे :-
● विरासत
● खरीद
● विजित करके
● निवेश
● खोज
● कार्य द्वारा
● सज्जनों द्वारा भेट को स्वीकार करके
स्त्रियों के लिए सम्पति अर्जन के 6 तरीके
● वैवाहिक अग्नि के सामने
● वधुगमन के समय मिली भेंट
● स्नेह के प्रतीक के रूप में
● माता द्वारा दिये गए उपहार
● भ्राता द्वारा दिये गए उपहार
● पिता द्वारा दिये गए उपहार
नोट :- इसके अतिरिक्त प्रवत्ति काल मे मिली भेट तथा वह सब कुछ जो अनुरागी पति से उसे प्राप्त हो ।
वर्ण एवं संपति के अधिकार :-
● शुद्र के लिए केवल एक जीविका थी सेवा करना
● लेकिन उच्च वर्गों में पुरुषों के लिए अधिक संभावना थी।
● ब्राह्मण और क्षत्रिय धनी व्यक्ति थे।
● बौध्दों ने ब्राह्मणीय वर्ण व्यवस्था की आलोचना की।
● बौध्दों ने जन्म के आधार पर सामाजिक प्रतिष्ठा को स्वीकार नहीं किया ।
साहित्यक, स्रोतों का इस्तेमाल :-
● किसी भी ग्रन्थ का विश्लेषण करते समय इतिहासकार कई पहलुओ का ध्यान रखते हैं।
● भाषा = साधारण भाषा या विशेष भाषा
● ग्रंथ का प्रकार = मंत्र या कथा
● लेखक के विषय में (दृष्टिकोण)
● श्रोताओं का निरीक्षण
● ग्रंथ का रचना काल
● ग्रंथ की विषयवस्तु
भाषा एव विषयवस्तु :-
● आख्यान
● कहानियाँ
ग्रंथ विषयवस्तु :-
● उपदेशात्मक
● सामाजिक आचार विचार के मानदंड
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