HBSE (हरियाणा बोर्ड)/ NCERT Class 12 इतिहास Chapter 8 किसान, जमींदार और राज्य (Notes)

किसान जमींदार और राज्य (Kisan jamindar aur rajya Peasants, Zamindars and the State) Notes in Hindi Class 12 History chapter-8 Book 1 



सोलहवीं-सत्रहवीं सदी के दौरान हिंदुस्तान में करीब-करीब 85 फ़ीसदी लोग गाँवों में रहते थे। छोटे खेतिहर और भूमिहर संभ्रांत दोनों ही कृषि उत्पादन से जुड़े थे और दोनों ही फ़सल के हिस्सों के दावेदार थे। इससे उनके बीच सहयोग, प्रतियोगिता ओर संघर्ष के रिश्ते बने। खेती से जुड़े इन तमाम रिश्तों के ताने-बाने से गाँव का समाज बनता था।



इसी समय कई बाहरी ताकतें भी ग्रामीण दुनिया में दाखिल हुईं। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण मुगल राज्य था जो अपनी आमदनी का बहुत बडा हिस्सा कृषि उत्पादन से उगाहता था। राज्य के नुमाइंदे - राजस्व निर्धारित करने वाले, राजस्व वसूली करने वाले, हिसाब रखने वाले - ग्रामीण समाज पर काबू रखने की कोशिश करते थे।


किसान और कृषि उत्पादन 

किसान साल भर अलग - अलग मौसम में विभिन्न काम करते थे 

जैसे -  

1. ज़मीन की जुताई 

2. बीज बोना 

3. फ़सल पकने पर उसकी कटाई


स्रोतों की तलाश

सोलहवीं और सत्रहवीं सदियों के कृषि इतिहास को समझने के लिए हमारे मुख्य स्रोत वे ऐतिहासिक ग्रंथ व दस्तावेज़ हैं जो मुग़ल दरबार की निगरानी में लिखे गए थे क्योंकि किसान अपने बारे में खुद नहीं लिखा करते थे इसलिए ग्रामीण समाज के क्रियाकलापों की जानकारी हमें उन लोगों से नहीं मिलती जो खेतों में काम करते थे ।


आइन- ए-अकबरी

आइन - ए - अकबरी को एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रंथ माना जाता है

आइन - ए - अकबरी अकबर के दरबारी इतिहासकार अबुल फज्ल ने लिखा था ।


आइन- ए-अकबरी 

1. खेतों की नियमित जुताई 

2. राज्य के नुमाइंदों द्वारा करों की उगाही 

3. राज्य व ज़मींदारों के बीच के रिश्ते का लेखा - जोखा इस ग्रंथ में बड़ी सावधानी से पेश किया गया है । 


आइन - ए – अकबरी  का मुख्य उद्देश्य :- 

  • अकबर के साम्राज्य का एक ऐसा खाका पेश करना था जहाँ एक मज़बूत सत्ताधारी वर्ग सामाजिक मेल - जोल बना कर रखता था ।
  • आइन के लेखक के मुताबिक , मुग़ल राज्य के खिलाफ कोई बगावत या किसी भी किस्म की स्वायत्त सत्ता की दावेदारी का असफल होना पहले ही तय था ।
  • किसानों के बारे में जो कुछ हमें आइन से पता चलता है वह सत्ता के ऊँचे गलियारों का नज़रिया है ।
  • हम आइन की जानकारी के साथ - साथ हम उन स्रोतों का भी इस्तेमाल कर सकते हैं जो मुग़लों की राजधानी से दूर के इलाकों में लिखे गए थे ।
  • इनमें सत्रहवीं व अठारहवीं सदियों के गुजरात , महाराष्ट्र और राजस्थान से मिलने वाले वे दस्तावेज़ शामिल हैं जो सरकार की आमदनी की विस्तृत जानकारी देते हैं ।
  • इसके अलावा , ईस्ट इंडिया कंपनी के बहुत सारे दस्तावेज़ भी हैं जो पूर्वी भारत में कृषि संबंधों का उपयोगी खाका पेश करते हैं । ये सभी स्रोत किसानों , ज़मींदारों और राज्य के बीच तने झगड़ों को दर्ज करते हैं ।
  • ये स्रोत यह समझने में हमारी मदद करते हैं कि किसान राज्य को किस नज़रिये से देखते थे और राज्य से उन्हें कैसे न्याय की उम्मीद थी ।

किसान और उनकी ज़मीन

  • मुग़ल काल के भारतीय फ़ारसी स्रोत से यह जानकारी मिलती है की किसान के लिए रैयत या मुज़रियान शब्द का इस्तेमाल किया जाता था ।
  • कई बार हमें किसान या आसामी जैसे शब्द भी मिलते हैं ।
  • सत्रहवीं सदी के स्रोत दो तरह के किसानों की चर्चा करते हैं

1. खुद - काश्त

    • खुद - काश्त ऐसे किसान थे जो उन्हीं गाँवों में रहते थे जिनमें उनकी ज़मीन थीं। 

2. पाहि - काश्त 

    • पाहि - काश्त वे खेतिहर थे जो दूसरे गाँवों से ठेके पर खेती करने आते थे लोग अपनी मर्जी से भी पाहि – काश्त बनते थे। 



सिंचाई और तकनीक 

  • जमीन की बहुतायत, मजदूरों की मौजूदगी , और किसानों की गतिशीलता की वजह से कृषि का लगातार विस्तार हुआ ।
  • खेती का प्राथमिक उद्देश्य लोगों का पेट भरना था , इसलिए रोज़मर्रा के खाने की जरूरतें जैसे चावल ,गेहूँ ,ज्वार इत्यादि फ़सलें सबसे ज्यादा उगाई जाती थीं ।
  • जिन इलाकों में प्रति वर्ष 40 इंच या उससे ज़्यादा बारिश होती थी , वहाँ कमोबेश चावल की खेती होती थी ।
  • कम बारिश वाले इलाकों में गेहूँ व ज्वार-बाजरे की खेती ज्यादा प्रचलित थी ।
  • मानसून भारतीय कृषि की रीढ़ था , जैसा कि आज भी है लेकिन कुछ ऐसी फ़सलें भी थीं जिनके लिए अतिरिक्त पानी की ज़रूरत थी इनके लिए सिंचाई के कृत्रिम उपाय बनाने पड़े ।
  • सिंचाई कार्यों को राज्य की मदद भी मिलती थी उत्तर भारत में राज्य ने कई नई नहरें व नाले खुदवाए और कई पुरानी नहरों की मरम्मत करवाई , जैसे कि शाहजहाँ के शासनकाल के दौरान पंजाब में शाह नहर ।

किसान द्वारा अपनाई जाने वाली कृषि तकनीक –

  • खेती के लिए पशुबल का इस्तेमाल लकड़ी के हलके हल का इस्तेमाल जिसके एक छोर पर लोहे की नुकीली धार या फाल लगी होती थी
  • ऐसे हल मिट्टी को बहुत गहरे नहीं खोदते थे जिसके कारण तेज़ गर्मी के महीनों में नमी बची रहती थी ।
  • किसान बैलों के जोड़े के सहारे खींचे जाने वाले बरमे का इस्तेमाल बीज बोने के लिए किया जाता था लेकिन बीजों को हाथ से छिड़क कर बोने का रिवाज ज्यादा प्रचलित था ।
  • मिट्टी की गुड़ाई और साथ - साथ निराई के लिए लकड़ी के मूठ वाले लोहे के पतले धार काम में लाए जाते


फ़सलों की भरमार

                        मौसम के दो मुख्य चक्रों के दौरान खेती की जाती थी : 

                                              1. खरीफ़ ( पतझड़ में ) – जून से सितम्बर 

                                               2. रबी ( वसंत में ) – अक्तूबर  से मार्च 

  • सूखे इलाकों और बंजर ज़मीन को छोड़ दें तो ज्यादातर जगहों पर साल में कम से कम दो फ़सलें होती थीं ।
  • जहाँ बारिश या सिंचाई के अन्य साधन हर वक्त मौजूद थे वहाँ तो साल में तीन फसलें भी उगाई जाती थीं इस वजह से पैदावार भारी विविधता पाई जाती थी ।
  • आइन-ए-अकबरी से पता लगता कि दोनों मौसम मिलाकर , मुग़ल प्रांत आगरा में 39 किस्म की फ़सलें उगाई जाती थीं जबकि दिल्ली प्रांत में 43 फ़सलों की पैदावार होती थी ।
  • बंगाल में सिर्फ चावल की 50 किस्में पैदा होती थीं ।
  • जिन्स - ए - कामिल - सर्वोत्तम फ़सलें मुग़ल राज्य भी किसानों को ऐसी फ़सलों की खेती करने के लिए बढ़ावा देता था क्योंकि इनसे राज्य को ज़्यादा कर मिलता था। कपास और गन्ने जैसी फ़सलें बेहतरीन जिन्स -ए- कामिल थीं ।
  • मध्य भारत और दक्कनी पठार में फैले हुए ज़मीन के बड़े - बड़े टुकड़ों पर कपास उगाई जाती थी बंगाल अपनी चीनी के लिए मशहूर था ।
  • तिलहन ( जैसे सरसों ) और दलहन भी नकदी फ़सलों में आती थीं ।
  • सत्रहवीं सदी में दुनिया के अलग - अलग हिस्सों से कई नयी फ़सलें भारतीय उपमहाद्वीप पहुँचीं ।
  • मक्का भारत में अफ्रीका और स्पेन के रास्ते आया टमाटर , आलू और मिर्च जैसी सब्ज़ियाँ नयी दुनिया से लाई गईं अनानास और पपीता जैसे फल भी वहीं से आए


2. ग्रामीण समुदाय

  • किसान की अपनी ज़मीन पर व्यक्तिगत मिल्कियत होती थी ।
  • साथ ही जहाँ तक उनके सामाजिक अस्तित्व का सवाल है , कई मायनों में वे एक सामूहिक ग्रामीण समुदाय का हिस्सा थे ।

इस समुदाय के तीन घटक थे – 

1. खेतिहर किसान
2. पंचायत 
3. गाँव का मुखिया ( मुक़द्दम या मंडल )
2.1 जाति और ग्रामीण माहौल




जाति और ग्रामीण माहौल :-
  • जातिगत भेदभावों की वजह से खेतिहर किसान कई तरह के समूहों में बँटे थे।खेतों की जुताई करने वालों में एक बड़ी तादाद ऐसे लोगों की थी जो नीच समझे जाने वाले कामों में लगे थे , या फिर खेतों में मज़दूरी करते थे । हालाँकि खेती लायक ज़मीन की कमी नहीं थी , फिर भी कुछ जाति के लोगों को सिर्फ नीच समझे जाने वाले काम ही दिए जाते थे इस तरह वे ग़रीब रहने के लिए मजबूर थे । उस वक्त जनगणना तो नहीं होती थी , लेकिन जो थोड़े बहुत आँकड़े और तथ्य हमारे पास हैं उनसे पता चलता है कि गाँव की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा ऐसे ही समूहों का था । जिनके पास संसाधन सबसे कम थे और ये जाति व्यवस्था की पाबंदियों से बँधे थे इनकी हालत कमोबेश वैसी ही थी जैसी कि आधुनिक भारत में दलितों की मुसलमान समुदायों में हलालख़ोरान जैसे ' नीच ' कामों से जुड़े समूह गाँव की हदों के बाहर ही रह सकते थे इसी तरह बिहार में मल्लाहज़ादाओं(शाब्दिक अर्थ, नाविकों के पुत्र) की तुलना दासों से की जा सकती थी । सत्रहवीं सदी में मारवाड़ में लिखी गई एक किताब राजपूतों की चर्चा किसानों के रूप में करती है । इस किताब के अनुसार जाट भी किसान थे लेकिन जाति व्यवस्था में उनकी जगह राजपूतों के मुक़ाबले नीची थी । पशुपालन और बागबानी में बढ़ते मुनाफे की वजह से अहीर , गुज्जर और माली जैसी जातियाँ सामाजिक सीढ़ी में ऊपर उठीं ।
2.2  पंचायतें और मुखिया

  • गाँव की पंचायत में बुजुर्गों का जमावड़ा होता था आमतौर पर वे गाँव के महत्त्वपूर्ण लोग हुआ करते थे जिनके पास अपनी संपत्ति के पुश्तैनी अधिकार होते थे । जिन गाँवों में कई जातियों के लोग रहते थे , वहाँ अकसर पंचायत में भी विविधता पाई जाती थी । यह एक ऐसा अल्पतंत्र था जिसमें गाँव के अलग - अलग संप्रदायों और जातियों की नुमाइंदगी होती थी । पंचायत का फ़ैसला गाँव में सबको मानना पड़ता था पंचायत का सरदार एक मुखिया होता था जिसे मुक़द्दम या मंडल कहते थे । कुछ स्रोतों से ऐसा लगता है कि मुखिया का चुनाव गाँव के बुजुर्गों की आम सहमति से होता था और इस चुनाव के बाद उन्हें इसकी मंजूरी ज़मींदार से लेनी पड़ती थी । मुखिया अपने ओहदे पर तभी तक बना रहता था जब तक गाँव के बुजुर्गों को उस पर भरोसा था ऐसा नहीं होने पर बुजुर्ग उसे बर्खास्त कर सकते थे । गाँव के आमदनी व खर्चे का हिसाब - किताब अपनी निगरानी में बनवाना मुखिया का मुख्य काम था और इसमें पंचायत का पटवारी उसकी मदद करता था । पंचायत का खर्चा गाँव के उस आम ख़जाने से चलता था जिसमें हर व्यक्ति अपना योगदान देता था ।
2.3 ग्रामीण दस्तकार:-
  • अंग्रेज़ी शासन के शुरुआती वर्षों में किए गए गाँवों के सर्वेक्षण और मराठाओं के दस्तावेज़ बताते हैं कि गाँवों में दस्तकार काफ़ी अच्छी तादाद में रहते थे कहीं - कहीं तो कुल घरों के 25 % घर दस्तकारों के थे । कभी - कभी किसानों और दस्ताकारों के बीच फ़र्क करना मुश्किल होता था क्योंकि कई ऐसे समूह थे जो दोनों किस्म के काम करते थे । खेतिहर और उसके परिवार के सदस्य कई तरह की वस्तुओं के उत्पादन में शिरकत करते थे रँगरेज़ी , कपड़े पर छपाई , मिट्टी के बरतनों को पकाना खेती के औज़ारों को बनाना या उनकी मरम्मत करना । ऐसे महीनों में जब उनके पास खेती के काम से फ़ुरसत होती - उस समय ये खेतिहर दस्तकारी का काम करते थे कुम्हार , लोहार , बढ़ई , नाई , यहाँ तक कि सुनार जैसे ग्रामीण दस्तकार भी अपनी सेवाएँ गाँव के लोगों को देते थे जिसके बदले गाँव वाले उन्हें अलग - अलग तरीकों से उन सेवाओं की अदायगी करते थे ।आमतौर पर या तो उन्हें फ़सल का एक हिस्सा दे दिया जाता था या फिर गाँव की ज़मीन का एक टुकड़ा , शायद कोई ऐसी ज़मीन जो खेती लायक होने के बावजूद बेकार पड़ी थी ।
2.4 एक " छोटा गणराज्य ?

  • उन्नीसवीं सदी के कुछ अंग्रेज़ अफ़सरों ने भारतीय गाँवों को एक ऐसे " छोटे गणराज्य " के रूप में देखा जहाँ लोग सामूहिक स्तर पर भाईचारे के साथ संसाधनों और श्रम का बँटवारा करते थे लेकिन ऐसा नहीं लगता कि गाँव में सामाजिक बराबरी थी । संपत्ति की व्यक्तिगत मिल्कियत होती थी , साथ ही जाति और जेंडर ( लिंग ) के नाम पर समाज में गहरी विषमताएँ थीं । कुछ ताकतवर लोग गाँव के मसलों पर फ़ैसले लेते थे और कमजोर वर्गों का शोषण करते थे न्याय करने का अधिकार भी उन्हीं को मिला हुआ था ।
3 कृषि समाज में महिलाएँ:-

  • महिलाएँ और पुरुष कंधे से कंधा मिलाकर खेतों में काम करते थे । पुरुष खेत जोतते थे , हल चलाते थे महिलाएँ बुआई , निराई और कटाई , पकी हुई फ़सल का दाना निकालने का काम करती थीं । पश्चिमी भारत में राजस्वला महिलाओं को हल या कुम्हार का चाक छूने की इजाजत नहीं थी , बंगाल में अपने मासिक धर्म के समय महिलाएँ पान के बगान में नहीं घुस सकती थीं । सूत कातने , बरतन बनाने के लिए मिट्टी को साफ़ करने और गूँधने , और कपड़ों पर कढ़ाई जैसे दस्तकारी के काम महिला करती थी उत्पादन के ऐसे पहलू थे जो महिलाओं के श्रम पर निर्भर थे । किसी वस्तु का जितना वाणिज्यीकरण होता था , उसके उत्पादन के लिए महिलाओं के श्रम की उतनी ही माँग होती थी । किसान और दस्तकार महिलाएँ ज़रूरत पड़ने पर न सिर्फ़ खेतों में काम करती थीं बल्कि नियोक्ताओं के घरों पर भी जाती थीं और बाज़ारों में भी । चूँकि समाज श्रम पर निर्भर था , इसलिए बच्चे पैदा करने की अपनी क़ाबिलियत की वजह से महिलाओं को महत्त्वपूर्ण संसाधन के रूप में देखा जाता था । शादी शुदा महिलाओं की कमी थी क्योंकि कुपोषण , बार - बार माँ बनने और प्रसव के वक़्त मौत की वजह से महिलाओं में मृत्युदर बहुत ज्यादा था ।


4. जंगल और कबीले :-

4.1 बसे हुए गाँवों के परे 

  • उत्तर और उत्तर-पश्चिमी भारत की गहरी खेती वाले प्रदेशों को छोड़ दें तो ज़मीन के विशाल हिस्से जंगल या झाड़ियों से घिरे थे। ऐसे इलाके झारखंड सहित पूरे पूर्वी भारत, मध्य भारत, उत्तरी क्षेत्र (जिसमें भारत-नेपाल के सीमावर्ती इलाके की तराई शामिल हैं), दक्षिणी भारत का पश्चिमी घाट और दक्कन के पठारों में फैले हुए थे। ऐसा अंदाज़ा लगाया गया है कि यह औसत करीब-करीब 40 फ़ीसदी था। उस समय की रचनाएँ यह बताती है कि जंगल में रहने वालों के लिए जंगली शब्द का इस्तेमाल करती है जंगली होने का मतलब था जिनका गुज़ारा जंगल के उत्पादों , शिकार और झूम खेती से होता था । ये काम मौसम के मुताबिक होता था , बसंत के मौसम में जंगल के उत्पाद इकट्ठा किए जाते , गर्मियों में मछली पकड़ी जाती , मानसून के महीनों में खेती की जाती ,शरद व जाड़े के महीनों में शिकार किया जाता था यह सिलसिला लगातार गतिशीलता की बुनियाद पर खड़ा था और इस बुनियाद को मज़बूत भी करता था । लगातार एक जगह से दूसरी जगह घूमते रहना इन जंगलों में रहने वाले कबीलों की एक खासियत थी । जहाँ तक राज्य का सवाल है , उसके लिए जंगल उलट फेर वाला इलाका था : बदमाशों को शरण देने वाला अड्डा ( मवास ) ।
बाबर कहता है कि – 
  • जंगल एक ऐसा रक्षाकवच था " जिसके पीछे परगना के लोग कड़े विद्रोही हो जाते थे और कर अदा करने से मुकर जाते थे ।

4.2 जंगलों में घुसपैठ :-

  • राज्य को सेना के लिए हाथियों की जरूरत होती थी इसलिए , जंगलवासियों से ली जाने वाली पेशकश में अकसर हाथी भी शामिल होते थे ।
  • शिकार अभियान –शिकार अभियान के नाम पर बादशाह अपने विशाल साम्राज्य के कोने - कोने का दौरा करता था और इस तरह अलग - अलग इलाकों के लोगों की समस्याओं और शिकायतों पर व्यक्तिगत रूप से गौर करता था । दरबारी कलाकारों के चित्रों में शिकार का दृश्य बार - बार आता था ।




5. ज़मींदार :-

  • जमींदार ऐसा वर्ग था जिनकी कमाई तो खेती से आती थी लेकिन जो कृषि उत्पादन सीधे हिस्सेदारी नहीं करते थे । जमींदार अपनी ज़मीन के मालिक होते थे ग्रामीण समाज में इनकी ऊँची हैसियत होती थी ऊँची हैसियत होने के कारण इन्हें कुछ खास सामाजिक और आर्थिक सुविधाएँ मिली हुई थीं । ज़मींदारों की बढ़ी हुई हैसियत के पीछे एक कारण जाति था वे कुछ खास किस्म की सेवाएँ ( ख़िदमत ) देते थे जैसे राज्य की ओर से कर वसूलना ज़मींदारों की बढ़ी हुई हैसियत के पीछे एक कारण जाति था वे कुछ खास किस्म की सेवाएँ ( ख़िदमत ) देते थे । ज़मींदारों की समृद्धि की वजह थी उनकी विस्तृत व्यक्तिगत ज़मीन इन्हें मिल्कियत (संपत्ति) कहते थे । मिल्कियत ज़मीन पर ज़मींदार के निजी इस्तेमाल के लिए खेती होती थी इन ज़मीनों पर दिहाड़ी के मज़दूर या पराधीन मज़दूर काम करते थे। ज़मींदार अपनी मर्जी के मुताबिक इन ज़मींनों को बेच सकते थे , किसी और के नाम कर सकते या उन्हें गिरवी रख सकते थे जमींदार सैनिक संसाधन होने के कारण अधिक ताकतवर थे ज़्यादातर ज़मींदारों के पास अपने किले भी थे और अपनी सैनिक टुकड़ियाँ भी जिसमें घुड़सवारों , तोपखाने और पैदल सिपाहियों के जत्थे होते थे ।

6. भू - राजस्व प्रणाली :-


               1. कर निर्धारण
               2. वास्तविक वसूली 



जमा - निर्धारित रक़म
हासिल - सचमुच वसूली गई रकम
अमील - गुज़ार - यह मुग़ल काल के ऐसे अधिकारी थे


राजस्व वसूली:-
  • जो राजस्व वसूली का कार्य करते थे अमील - गुज़ार को अकबर ने यह हुक्म दिया कि उन्हें कोशिश करनी चाहिए कि किसान नकद भुगतान करे , और फसलों में भुगतान का विकल्प भी खुला होना चाहिए कर निर्धारित करते समय राज्य अपना हिस्सा ज़्यादा से ज्यादा रखने की कोशिश करता था । लेकिन स्थानीय हालात की वजह से कभी - कभी सचमुच में इतनी वसूली कर पाना संभव नहीं हो पाता था हर प्रांत में जुती हुई ज़मीन और जोतने लायक ज़मीन दोनों की नपाई की गई । अकबर के शासन काल में अबुल फ़ज़ल ने आइन में ऐसी ज़मींनों के सभी आंकड़ों को संकलित किया । बाद के शासकों ने भी ज़मीन की नपाई के प्रयास जारी रहे । 1665 ई . में , औरंगज़ेब ने अपने राजस्व कर्मचारियों को स्पष्ट निर्देश दिया कि हर गाँव में खेतिहरों की संख्या का सालाना हिसाब रखा जाए इसके बावजूद सभी इलाक़ों की नपाई सफलतापूर्वक नहीं हुई । ये हिस्से जंगलों से घिरे हुए थे और इनकी नपाई नहीं हुई। 



7. चाँदी का बहाव:-

  • मुगल साम्राज्य एशिया के उन बड़े साम्राज्यों में एक था जो सोलहवीं व सत्रहवीं सदी में सत्ता और संसाधनों पर अपनी पकड़ मज़बूत बनाने में कामयाब रहे । खोजी यात्राओं से और ' नयी दुनिया ' के खुलने से यूरोप के साथ एशिया , खास कर भारत के , व्यापार में भारी विस्तार हुआ । इस वजह से भारत के समुद्र - पार व्यापार में भौगोलिक विविधता आई कई नयी वस्तुओं का व्यापार भी शुरू हो गया । लगातार बढ़ते व्यापार के साथ , भारत से निर्यात होने वाली वस्तुओं का भुगतान करने के लिए एशिया में भारी मात्रा में चाँदी आई । इस चाँदी का एक बड़ा हिस्सा भारत की तरफ़ खिंच गया ।यह भारत के लिए अच्छा था क्योंकि यहाँ चाँदी के प्राकृतिक संसाधन नहीं थे । सोलहवीं से अठारहवीं सदी के बीच भारत में धातु मुद्रा - खास कर चाँदी के रुपयों की उपलब्धि में अच्छी स्थिरता बनी रही । इसके साथ ही एक तरफ तो अर्थव्यवस्था में मुद्रा संचार और सिक्कों की ढलाई में अभूतपूर्व विस्तार हुआ दूसरी तरफ़ मुग़ल राज्य को नकदी कर उगाहने में आसानी हुई ।








अबुल फज़ल की आइन - ए - अकबरी:- 
  • आइन - ए - अकबरी एक बड़ी परियोजना थी इसका जिम्मा बादशाह अकबर ने अबुल फ़ज़्ल को दिया था । अकबर के शासन के बयालीसवें वर्ष , 1598 ई. में , पाँच संशोधनों के बाद , इसे पूरा किया गया । आइन इतिहास लिखने के एक ऐसे बृहत्तर परियोजना का हिस्सा थी जिसकी पहल अकबर ने की थी । इस परियोजना का परिणाम था अकबरनामा जिसे तीन जिल्दों में रचा गया ।

1. पहली दो जिल्दों ने ऐतिहासिक दास्तान पेश की । 
2. तीसरी जिल्द - आइन - ए - अकबरी थी  

अकबर नामा
  • ऐतिहासिक दास्तान
  • ऐतिहासिक दास्तान
  • आइन-ए–अकबरी

आइन - ए – अकबरी  
  1. दरबार
  2. प्रशासन
  3. सेना का संगठन
  4. राजस्व के स्रोत
  5. अकबरी साम्राज्य के प्रांतों का भूगोल
  6. लोगों के साहित्यिक , सांस्कृतिक व धार्मिक रिवाज
  7. अकबर की सरकार के तमाम विभागों
  8. अकबर के काल के विभिन्न प्रांत (सूबों) के बारे में

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